बेडरूम से लेकर वार रूम तक उन्मादी मीडिया

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यूं तो भारतीय मीडिया खासकर टेलीविजन मीडिया के बौड़मपन का नमूना उस वक्त देश समेट पूरे विश्व मीडिया ने भी देखा था कि , किस तरह , गैर जिम्मेदार होकर , टेलीविजन कैमरामैनों व् पत्रकारों ने अंधाधुंध सभी संवेदनशील समाचारों को न सिर्फ दिखाया बल्कि सेना व् सुरक्षा बलों की भविष्य की कार्यवाहियों और योजनाओं को भी इतना खोल खोल के बता समझा दिया कि वहीँ छुप कर बैठे आतंकियों ने भी न सिर्फ उसे देखा बल्कि उसको देख कर अपनी रणनीति भी बना ली | बाद में जब भूल का अंदाजा हुआ तो कमांडोज और पुलिस बल की सख्ती के बाद मीडिया को भी अपनी गलती का एहसास हुआ |

लेकिन ये एहसास भी क्षणिक ही रहा , क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अति संवेदनशील विषय और सीमा क्षेत्र में रिपोर्टिंग , कवरेज , कैमरे और वीडियो फुटेज , शूटिंग और प्रसारण आदि जैसे बिन्दुओं पर न तो कभी मीडिया में कभी गंभीरता से सोचा विचारा गया है तो इस दिशा में नीति और दिशा निर्देशों की तो बात ही दूर है | ये सब तो खैर जब बनेगा तब बनेगा मगर कैमरा और माईक पकडे हुए पत्रकार और साथी , पेशेवराना रुख तो बहुत बाद की बात है मगर एक भारतीय नागरिक के रूप भी कम से कम इतना अंदाजा तो सहज ही लगा सकते हैं कि जिन ख़बरों दृश्यों को वे समेट रहे हैं उनके प्रसारण का क्या और कितना प्रभाव और किस पर पड़ेगा |

पोस्ट लिखे जाते समय भी जब मैं आजतक समाचार चैनल देख रहा हूँ तो उसका एक रिपोर्टर बाखुशी फख्र से ये दिखा बता और समझा रहा है वो भी पूरी तफसील से कि वो भारत की सीमा पर बने आख़िरी बंकर से सीधे दर्शकों के लिए वो सब पहली बार एक्सक्लूसिव अपने चैनल पर सिर्फ इसलिए दिखा रहा कि उससे वो ख़ास चैनल देख रहा दर्शक देश के अन्य चैनल देख रहे दर्शकों से इस मामले में ज्यादा तेज़ और ज्यादा विशिष्ट हो जाएगा | उस पत्रकार को , उस टीवी चैनल को , और उसे देख रहे दर्शक को भी कहीं से ये गुमान नहीं होता कि उसके उन भारतीय दर्शकों के अलावा कुछ ऐसे अनचाहे अवांछित दर्शक भी हैं और देख रहे हैं जिन्हें ये सब देखने दिखाने के लिए कई बार अपनी जान जोखिम में डालना पड़ता |

समाचारों का प्रस्तुतीकरण , एंकर का हावभाव , उत्तेजित शैली , अधूरी जानकारी , श्रवण और दृश्य के संयोजन की तकनीक से अधिक पारदर्शिता उत्पन्न करने के स्थान पर अधिक सनसनी पैदा करने की कोशिश की जाती है | रही सही कसर , ऊल जलूल परिकल्पनाओं पर आधारित और अधिकतर टीवी पर पूरे दिन आ रहे धारावाहिकों , रियलिटी शोज़ आदि की क्लिपिंग पर घंटो कार्यक्रम बना कर परोसते ये तमाम समाचार चैनल अब सिर्फ एक नौटंकी भर बन कर रह गए हैं |


और सबसे दुखद बात ये है कि कमोबेश सभी बड़े छोटे समाचार चैनल आज इसी उन्माद और व्यावसायिक दौड़ जिसे आम बोलचाल की भाषा में टीआरपी की दौड़ भी कहा जाता है , में बेतहाशा दौड़े चले जा रहे हैं | इनमें नवीनता , नए प्रोजेक्ट्स , नए स्थानों , नए अन्वेषणों , नई श्रृंखलाओं , का घोर अभाव सा दिखता है | अपराध , राजनीति , भ्रष्टाचार , नारी दमन …कोई भी विषय हो , कैसी भी घटना या दुर्घटना हो इन समाचार चैनलों में उसका प्रस्तुतीकरण किस तरह से कब और कैसे रूप में कर दिया जाए , ये अब कोई नहीं जानता  |

हालांकि ऐसे नहीं कि स्थति इतनी निराशाजनक है कि हताश हो कर बैठ जाया जाए , नहीं ऐसा कदापि नहीं है , विशेषकर आज के दौर में जहां एक नए समाचार माध्यम , जो अन्य किसी भी माध्यम से कहीं अधिक तेज़ और प्रभावकारी है और वो है अंतरजाल से जुडा समाज यानि सोशल मीडिया या जन संचार का आभासी जगत | और ये तंत्र अपनी असीमित शक्ति और प्रभाव के कारण बहुत कम समय में ही एक न उपेक्षित किये जा सकने वाला स्तम्भ बन कर उठ खड़ा हुआ है | सच कहा जाए तो कहा जा रहा है कि अंतर्जालीय लेखन और विशेषकर सोशल मीडिया ने उन चिरागों की तलहटी में सूरज रख दिया जहां सदियों से बहुत सारा अन्धेरा जमा हो रहा था | मगर फिर डर तो वहां भी बना ही हुआ है कि , और अधिक् बना हुआ है | ज्यादा ताकत के साथ ज्यादा जिम्मेदारी का एहसास और उसमें कमी होने पर बहुत ज्यादा नुक्सान का अंदेशा तो हमेशा बना ही रहता है , किन्तु इन सबके बावजूद फिलहाल इसका रुख सकारात्मक अधिक है अभी |

टेलीविजन मीडिया में आज जो मंडीनुमा संस्कृति पनप रही है यदि उसे बहुत जल्द ही नीति निर्देशों और नियमों में नहीं परिभाषित ,नियंत्रित किया गया तो एक दिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया की आज़ादी के नाम पर लोगों के सामने जाने क्या और कितना परोस दिया जाएगा वैसे भी आज मीडिया के दायरे में बेडरूम से लेकर वार रूम तक सब कुछ मीडिया की  ज़द और हद में है , अगर कुछ हद में नहीं है, आत्मनियंत्रण में नहीं है ,तो वो है खुद मीडिया हाउसेज़ , प्रोडक्शन टीम , थिंक टैंक , नए रिपोर्टरों की जिजीविषा , जाने कहाँ गुम हैं सारी की सारी  ……जरूरी अब ये है कि खुद के गिरेबान में भी झांकना शुरू करें कैमरे ……और जहां जरूरी न हों वहां बिन ख़बरों बिन कैमरों के भी ज़िंदगी को चलने दिया करें ……हर बात खबर ही हो जरूरी तो नहीं

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